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Rajat Jayanti Uttarakhand: पंत का नाम-तिवारी का काम और धामी की धमक, 25 सालों में दो पार्टियों के बीच रही लड़ाई

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अब वर्तमान में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की धमक की चर्चा. Concept Photo



जागरण टीम, हल्द्वानी । भारतरत्न रहे गोविंद बल्लभ पंत जैसे महान राजनीतिक हस्ती का क्षेत्र कुमाऊं आजादी के समय से ही राजनीति का प्रमुख केंद्र रहा है। इसके बाद क्षेत्र से नारायण दत्त तिवारी भी राष्ट्रीय राजनीति में चमकते रहे। राज्य बनने के राज्य के मुख्यमंत्री भी बने लेकिन राज्य बनने के बाद कुमाऊं की धरती में अलग-अलग तरह की राजनीतिक खेती सिंचिंत होती रही लेकिन धीरे-धीरे विचारशून्यता भी बढ़ने लगी। क्षेत्रीय मुद्दे व महत्व कम होते गए। केवल दो राष्ट्रीय दल भाजपा-कांग्रेस में ही पूरी राजनीति सिमट गई। राजनीतिक विचारों के छोटे-छोटे समूह भी आपस में ही बंटते रहे। भले ही विधायक व सांसद के रूप में नए-नए नेता उभर गए लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में नहीं चमक सके। पूर्व सीएम हरीश रावत ने भी खुद को राज्य तक समेट दिया। वर्तमान में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी कुमाऊं से हैं, जिन्होंने समान नागरिक संहिता जैसे विषयों को लेकर अपनी धमक राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने की कोशिश की है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
नैनीताल : राजनीतिक धमक रखने वाले जिले में छाई वीरानी


राज्य गठन के बाद नैनीताल जिले में जबरदस्त राजनीतिक हलचल रही। वैसे तो इस जिले के पदमपुरी निवासी एनडी तिवारी राष्ट्रीय राजनीति में चमक चुके थे लेकिन राज्य बनने के दो वर्ष बाद उन्हें 2002 में मुख्यमंत्री बना दिया गया। उन्होंने रामनगर से उपचुनाव लड़ा था। तब जिले की राजनीति राज्य के केंद्र में आ चुकी थी। इसके साथ ही हल्द्वानी विधानसभा क्षेत्र से डा. इंदिरा हृदयेश का कद भी राजनीति में बढ़ चुका था। शुरुआत में जिले में विधानसभा की पांच सीटें थी लेकिन परिसीमन के बाद छह सीटें हो गई। शुरुआत में राज्य आंदोलन का असर था। क्षेत्रीय दल के प्रति लोगों की भावना था। जीत केवल नैनीताल सीट पर ही मिली थी। हल्द्वानी व नैनीताल से राज्य के मुद्दों पर आंदोलन व क्षेत्रीय आवाज भी मजबूती से उठती थी। भाजपा सरकार में उत्तर प्रदेश से लेकर उत्तराखंड सरकार में कैबिनेट मंत्री, प्रदेश अध्यक्ष रहे बंशीधर भगत का भी दबदबा हुआ करता था। लेकिन पिछले सात वर्षों से भले ही भाजपा के पांच विधायक हैं लेकिन जिले में राजनीति का कोई भी बड़ा चेहरा नहीं दिखता है।
ऊधम सिंह नगर : 2011 तक कांग्रेस का था गढ़, 2012 के बाद बदली तस्वीर

तराई यानी कुमाऊं मंडल का सबसे बड़ा जिला ऊधम सिंह नगर। जहां जातीय और सामाजिक दृष्टिकोण से सभी धर्मों का समागम है। नैनीताल-ऊधम सिंह नगर संसदीय सीट पर जहां कांग्रेस का दबदबा रहा और पूर्व मुख्यमंत्री एनडी तिवारी के बाद केसी सिंह बाबा और सतेंद्र गुड़िया यहां से सांसद रहे। जबकि विधानसभा की बात करें तो नौ विस क्षेत्र की राजनीतिक तस्वीर ऐसे है कि जहां वर्ष 2011 तक जिला कांग्रेस का गढ़ था। वहीं वर्ष 2012 के बाद राजनीति ने करवट ली और फिर यह भाजपा का गढ़ बन गया। वर्ष, 2007 से 2011 तक जिले में सात विधानसभा क्षेत्र थे। इसमें तीन विधानसभा में कांग्रेस, दो में भाजपा और बसपा का कब्जा था। लेकिन 2012 में जिले में किच्छा और नानकमत्ता विधानसभा अलग बना लिए थे जिसके बाद जिले में नौ विधानसभा क्षेत्र हुए। इस दौरान हुए चुनाव में जिले में भाजपा का सात सीटों पर कब्जा था जबकि कांग्रेस के पास केवल दो सीट थी। वर्ष, 2017 में जिले में भाजपा के आठ विधायक थे और कांग्रेस का केवल एक विधायक था। वर्ष, 2022 में हुए विधानसभा चुनाव में भी कई बदलाव हुए। इसमें भाजपा के कब्जे में चार सीट रही और कांग्रेस के पास पांच सीट रही।
बागेश्वर : राजनीति में दिखा कोश्यारी का प्रभाव

जिला अपनी सीमित भौगोलिक परिधि के बावजूद प्रदेश की राजनीति में अहम स्थान रखता है। राज्य गठन के बाद से यहां के जनप्रतिनिधियों ने सरकार तथा संगठन, दोनों स्तरों पर प्रभाव छोड़ा है। राज्य गठन के बाद 2002 के पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का दबदबा रहा, पर 2007 में भाजपा ने जिले में अपनी जड़ें मजबूत कीं। पूर्व सीएम भगत सिंह कोश्यारी के प्रभाव ने संगठन को बल दिया। 2017 में चंदन राम दास के नेतृत्व में भाजपा ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की तथा जिले को सरकार में प्रतिनिधित्व मिला। उनके निधन के बाद 2022 के उपचुनाव में उनकी पत्नी पार्वती दास ने यह जिम्मेदारी संभाली। कांग्रेस ने भी बसंत कुमार जैसे चेहरों के साथ फिर से संगठन को खड़ा करने की कोशिश की। 2007 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने जिले में शानदार प्रदर्शन किया। संगठन के स्तर पर भी बागेश्वर भाजपा के लिए एक मजबूत इकाई के रूप में उभरा। वर्तमान में कुंदन परिहार भाजपा के प्रदेश महामंत्री हैं।
अल्मोड़ा : विचारभूमि रही अल्मोड़ा अब सिर्फ कोरी राजनीति

अल्मोड़ा को उत्तराखंड राज्य आंदोलन व राजनीति की विचारभूमि कहा जाता है। यहीं पर 1916 में कुमाऊं परिषद की स्थापना हुई, जिसने पहाड़ की समस्याओं को राजनीतिक मंच दिया। 1970-80 के दशक में अल्मोड़ा कालेज के छात्र आंदोलनों ने राज्य की मांग को नई दिशा दी। 1994 में आंदोलन के चरम पर अल्मोड़ा में विशाल रैलियां, बंद और धरने हुए। महिलाओं, शिक्षकों, कर्मचारियों और युवाओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। राज्य गठन के बाद भी यहां के क्षेत्रीय नेताओं ने राज्य के नाम उत्तरांचल का विरोध किया। उनके संघर्षों से 2007 में प्रदेश का नाम उत्तराखंड हुआ। वर्ष 2014 में प्रदेश का नेतृत्व हरीश रावत को मिला। भाजपा के बची सिंह रावत भी केंद्रीय राज्य मंत्री तक रहे। वर्तमान में रेखा आर्य कैबिनेट मंत्री हैं और अजय टम्टा केंद्रीय राज्य मंत्री की जिम्मेदारी संभाले हुए हैं। हालांकि अब जिले में बौद्धिक राजनीति नहीं दिखती।
चंपावत : सीमांत और छोटे जिले को मिला मुख्यमंत्री का नेतृत्व

सीमांत चंपावत जिले का गठन 1997 में हुआ था। क्षेत्रफल के दृष्टि से बागेश्वर के बाद दूसरे नंबर का सबसे छोटा जिला चंपावत है। 25 वर्ष के छोटे सफर में ही चंपावत को मुख्यमंत्री का नेतृत्व मिलने का गौरव प्राप्त हुआ है। जिले में चंपावत व लोहाघाट दो विधानसभा सीट हैं। 2022 के चुनाव में खटीमा से जीतने में चूक गए पुष्कर धामी के लिए चंपावत से जीते भाजपा विधायक कैलाश चंद्र गहतोड़ी ने सीट खाली की थी। सीएम का नेतृत्व मिलने से उत्साहित जनता ने 92 प्रतिशत वोट देकर धामी को विजयी बनाया। इस समय जिले की राजनीति उन पर ही केंद्रित हो गई है।
पिथौरागढ़ : पिथौरागढ़ में बढ़ने लगी राजनीतिक चेतना

सीमांत जिले का राज्य बनने के बाद राजनीतिक सफर काफी रोचक रहा है। जिले ने प्रदेश की एकमात्र क्षेत्रीय पार्टी उत्तराखंड क्रांति दल के काशी सिंह ऐरी को राज्य बनने से पूर्व राज्य गठन के बाद विधानसभा भेजा। राज्य गठन के बाद जिले की सबसे कम एक हजार से कम की जनसंख्या वाली राजी जनजाति के व्यक्ति को दो बार विधानसभा भेजा। इसी जिले की धारचूला विधानसभा सीट से कांग्रेस नेता हरीश रावत जीते और मुख्यमंत्री रहे। राज्य गठन के बाद पिथौरागढ़ विधानसभा सीट से चुने गए विधायक स्व. प्रकाश पंत उत्तराखंड के पहले सबसे कम उम्र के विधानसभा अध्यक्ष बने । कांग्रेस के मयूख महर विधायक बनने के बाद अपनी मांगों को लेकर अपनी ही सरकार के विरुद्ध नगर के गांधी चौक में धरने पर बैठे। सरकार को उनके सामने झुकना पड़ा।

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