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क्या सच में खिसक रही हैं राशियां? भारतीय ज्योतिषियों से समझें पूरा गणित

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भारतीय ज्योतिष गणना में सायन एवं निरयन दोनों का समावेश है



शैलेष अस्थाना पिछले दिनों न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट ने ‘आधुनिक विज्ञान बनाम ज्योतिष’ के आधार पर इस बहस को तेज कर दिया कि क्या हजारों वर्षों में पृथ्वी के डगमगाने के कारण तारों के बारे में हमारा दृष्टिकोण बदल गया है।

न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट यह प्रश्न उठाती है कि शायद अब समय आ गया है कि लोगों को अपनी राशि पर पुनर्विचार करना चाहिए क्योंकि इसी रिपोर्ट के अनुसार 2000 वर्षों से चली आ रही राशियां ब्रह्मांड में अपना स्थान बदल चुकी हैं। इनके आधार पर की जाने वाली ज्योतिषीय गणना और उन्हीं प्राचीन राशियों का उपयोग अब कालातीत (समाप्त) हो चुका है। प्राचीन राशियां अब उन आकृतियों के अनुरूप नहीं रहीं, जिनके आधार पर उनके नाम रखे गए हैं। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
खिसक रही हैं राशियां

पश्चिम की यह बहस इस चिंतन से उभरी है कि पृथ्वी लट्टू की तरह डगमगाती है, बस थोड़ी धीमी गति से। आधुनिक विज्ञान की इस अवधारणा के अनुसार उत्तरी ध्रुव को आकाश में एक पूरा वृत्त बनाने में 26,000 वर्ष लगते हैं, जो रास्ते में अलग-अलग तारों की ओर संकेत करते हैं।

विज्ञानी इस डगमगाने वाली गति को ‘अक्षीय पूर्वगमन’ कहते हैं। इस कंपन का मतलब है कि तारों की स्थिति हर 72 साल में एक डिग्री बदल जाती है। शताब्दियों से यह अंतर बढ़ता ही जा रहा है। पृथ्वी के कंपन के कारण इससे सभी तारों-नक्षत्रों का दृष्टिपथ अब बदल गया है।

पश्चिमी विद्वानों का कहना है कि 2000 सालों से हो रहे इस बदलाव से लोगों की वह राशि भी बदल गई होगी, जिसे उस समय की स्थिति के आधार पर जन्म समय के अनुसार वे अपना मानते हैं। मेष, वृष, मिथुन आदि सभी राशियों का आकाश में स्थान अब परिवर्तित हो चुका है और वे अपने स्थान से लगभग 24 अंश पीछे खिसक चुके हैं।

इस स्थान परिवर्तन के फलस्वरूप लगभग 2000 वर्ष पूर्व आकाश में जहां मेष राशि थी, वहां अब वृष राशि आ गई है और मेष राशि, मीन राशि के स्थान पर। इसी प्रकार सभी राशियां अपने से पीछे वाली राशियों के स्थान पर चली गई हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित रिपोर्ट दावा करती है कि इसके चलते प्राचीन राशियों के अनुसार ग्रहों के प्रभाव का ज्योतिष में किया जा रहा फलादेश समसामायिक और वर्तमान की राशियों के सापेक्ष नहीं रह गया है!
भ्रम फैला रहे हैं पश्चिमी विद्वान

इस संबंध में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के ज्योतिष विज्ञान विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. विनय कुमार पांडेय का कहना है, ‘पश्चिमी विद्वान समाज में भ्रम की स्थितियां उत्पन्न कर रहे हैं। उन्हें भारतीय ज्योतिष शास्त्र के मूलभूत सिद्धांतों की जानकारी ही नहीं है। उन्हें यह नहीं पता है कि सौर मंडलीय राशियों की स्थिति, स्वरूप तथा नाम परिवर्तन के संबंध में वे जिस कालांतरजन्य प्रभाव की बात अब कर रहे हैं, उससे भारतीय ज्योतिषी व आर्ष मनीषा आदिकाल से परिचित हैं।  

इसीलिए भारतीय ज्योतिषी निरंतर हो रहे बदलावों के अनुसार अपनी गणना पद्धति में इसे समायोजित भी करते हैं। राशियों का स्थान परिवर्तन पृथ्वी के अपने अक्ष पर लगभग साढ़े 23 अंश झुकाव के कारण हो रहा है, जिसे भारतीय ज्योतिष शास्त्र में ‘अयनांश’ के रूप में स्वीकार किया गया है।

वस्तुतः भारतीय ज्योतिष शास्त्र में भी मेष इत्यादि राशियों के स्थान को चल और स्थिर दो रूपों में स्वीकार किया गया है। एक स्थिर भचक्र होता है जो कि आकाश मंडल में स्थिर रूप में विद्यमान रहता है तथा उसमें नक्षत्र एवं तारों की स्थितियां स्थिर होती हैं। वहीं परिवर्तनशील चल राशिचक्र को ‘सायन राशिचक्र’ (ट्रापिकिल जोडिएक) तथा स्थिर राशिचक्र को ‘निरयन राशिचक्र’ (सिडेरियल जोडिएक) कहा जाता है जिनका अंतर ही अयनांश होता है।
भारतीय ज्योतिषी जानते हैं समायोजन

भारतीय आचार्यों को यह पता था कि सृष्टि के आदिकाल से मेषादि बिंदु विपरीत गति से पीछे की तरफ चलते हुए लगभग 50 विकला की वार्षिक गति से लगभग 72 वर्षों में एक अंश पीछे की ओर खिसक रहे हैं। आचार्य मुंजाल आदि ने इसकी विस्तृत विवेचना अपने ग्रंथों में की है। ज्योतिषीय भाषा में इसे ऐसे समझ सकते हैं कि सृष्टि के आदिकालिक नाड़ी क्रांतिवृत्त का एक संपात बिंदु है जहां से मेष आदि राशियों की गणना आरंभ होती थी परंतु बिंदु चल रूप में देखा गया और वह परिवर्तित होता हुआ वर्तमान में पूर्व बिंदु से लगभग 24 अंश पीछे आ गया है।

अत: अब वर्तमानकालिक नाड़ी क्रांतिवृत्त के संपात स्थान से मेषादि की गणना हो रही है। इन दोनों संपात बिंदुओं का अंतर ही अयनांश है जो लगभग 24 अंश है। इस अंतर को समायोजित कर देने पर राशियों का फल, ग्रहों-नक्षत्रों का जीवन के विविध क्षेत्रों पर प्रभाव अपने प्राचीन निष्कर्षों के आधार पर सटीक हो जाता है।

भारतीय ज्योतिष शास्त्र में निरयन के सापेक्ष राशियों में ग्रहों की स्थिति का फल बताया गया है परंतु सौरमंडलीय परिवर्तन के कारण राशियों की आकृति और उनका जो स्थान परिवर्तित होते हुए चल क्रांतिवृत्त के रूप में दृष्टिगत होता है उसमें मेषादि राशियों की स्थिति परिवर्तित स्थानों में दिखाई पड़ने लगती है।

इसीलिए भारतीय आचार्य लग्न, ग्रहण, ग्रहयुति, उदय, अस्त आदि किसी भी दृश्य विषय के निर्धारण में परिवर्तित स्थान वाले राशियों को लेते हैं परंतु राशियों में ग्रह-नक्षत्रादि के फल निर्धारण हेतु सृष्टि के आदिकाल के अनुसार स्थिर मेषादि की स्थिति को ग्रहण करने की व्यवस्था है।

भारतीय ज्योतिष शास्त्र के आचार्यों ने स्थिर भचक्र के सापेक्ष ही राशियों में ग्रहों की स्थिति के फलों को अनुभूत करते हुए ज्योतिष शास्त्र के ग्रंथों को निरूपित किया है जो कि स्थिर राशियों के अनुरूप है। इसलिए अयन चलन के अनुरूप राशियों के स्थान परिवर्तित हो जाने के बाद भी राशियों में ग्रहों की स्थिति का फल निरयन राशियों में ग्रह स्थिति के सापेक्ष ही प्राप्त होगा!
यह ज्ञान तो वैदिक काल से है

काशी हिंदू विश्वविद्यालय के ज्योतिष विज्ञान विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. गिरिजाशंकर शास्त्री कहते हैं, ‘समस्या यह नहीं है कि हमारी राशियां बदल गई हैं या नहीं। समस्या यह है कि यह प्रश्न उठाने वाले विद्वानों को भारतीय ज्योतिष और भारतीय गणित का ज्ञान नहीं है। पश्चिम के विद्वानों को यह समझना चाहिए कि भारतीय ज्योतिष गणना में सायन एवं निरयन दोनों का समावेश है। वे यदि भारतीय ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन कर लेंगे तो ऐसा प्रश्न ही नहीं उठाएंगे।

पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार लगभग 2000 वर्ष पूर्व हिपार्कस ने राशि, नक्षत्रों में परिवर्तन की बात कही। परंतु वेदों में इसकी चर्चा उसके बहुत पहले से ही प्राप्त होती है। ऋग्वेद के प्रथम मंडल में राशि परिवर्तन व तृतीय मंडल में चंद्रग्रहण आदि का वर्णन देखा जा सकता है। अत्रि संहिता व तैत्तरीय संहिता में उल्लेखित तथ्य देखें तो ईस्वी सन से 5000 वर्ष पूर्व यानी आज से 7000 वर्ष पूर्व वसंत संपात मृगशिरा में हो रहा था।

3000 वर्ष पूर्व लिखित सत्पथ ब्राह्मण में वसंत संपात कृतिका नक्षत्र में बताया गया है। अब 2000 वर्ष से यह मेष राशि में हो रहा है। इस कालखंड का वर्णन बाल गंगाधर तिलक ने अपने ग्रंथ ‘ओरायन’ में किया है। इन वेदों को ही मैक्समूलर, वेबर व टीथ आदि पश्चिमी विद्वानों ने ‘गड़रियों का गीत’ कहा था। उन्हें बोध ही नहीं है कि जब भारत के गड़रिया इतने गूढ़ विषय को गीतों में गा सकते हैं तो यहां के विद्वानों का स्तर क्या रहा होगा!’
क्या है क्रांतिवृत्त और भचक्र

राशि और राशि चक्र के निर्धारण के लिए आकाश मंडल में निर्धारित 360 अंश के आभासीय पथ को ‘क्रांतिवृत्त’ कहते हैं। इसी 360 अंश के क्रांतिवृत्त के दोनों ओर 9-9 अंश विस्तार की कुल 18 अंश की चौड़ी पट्टी है जिसे ‘भचक्र’ कहते हैं। भचक्र ही राशि चक्र है, जिस पर सभी ग्रह और नक्षत्र बारी-बारी से पूर्व में उदित होकर पश्चिम में अस्त होते हैं!

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